चुनाव और बच्चे-
पहले के चुनाव में बच्चों को बहुत ज्यादा मजा आता था l मतदाताओं को रिझाने के लिए प्रत्याशी एक से बढ़कर एक नौटंकी किया करते थे l मुझे अपने बचपन के चुनाव याद है l जब मैं 1980 में कक्षा 5 में पढ़ता था उस जमाने में जब चुनाव होते थे तो बड़ा मजा आता था l प्रत्याशी गांव में जब प्रवेश करते थे तो दूर से ही पता चल जाता था l गांव की सडकें कच्ची या न के बराबर थी l खूब गर्दा उड़ा करती थी l उनकी जीप में ही माइक बंधा होता था, लाउडस्पीकर जीप की छत के ऊपर रखा होता था l ट्रैक्टर का प्रयोग भी खूब होता था l प्रत्याशी एक या दो गाड़ी से ही गांव में घूमा करते थे l उनके गांव आते ही सैकड़ों लड़के गांव के बाहर इकट्ठा हो जाते, उनसे पर्चा और बिल्ला मांगते l जीप और ट्रैक्टर में लटक कर हम गांव के बाहर तक चले जाते l कभी-कभी गिर भी पड़ते थे l लेकिन घर में नहीं बताते थे l
प्रत्याशी गांव में अपनी फिजा बनाने के लिए बच्चों को लोहे के गोल वाले बिल्ले, उसके बाद प्लास्टिक के बिल्ले और कागज के चौकोर बिल्ले खूब बांटा करते थे l बिल्ले के बीच में चुनाव चिन्ह बना होता था l इसके अलावा जो पर्चे होते थे वह बैलट पेपर की तरह होता था l जिसमें वह अपना चुनाव निशान और अपना नाम लिखकर के मतदाताओं को दिया करते थे l हम लोग पर्चे लेकर घर की दीवारों पर चिपकाते थे l बड़े बड़े पोस्टर प्रत्याशी के आदमी ही चिपकाते थे l दारू तब भी बांटी जाती थी और आज भी बांटी जाती है l लेकिन तब देसी दारू ज्यादा बांटी जाती थी, जिसे कच्ची दारू कहा जाता था l हमें बिल्लो को एकत्रित करने का बड़ा शौक था l मेरे पास हाथ का पंजा, कमल का फूल, उगता हुआ सूरज, हलधर किसान और न जाने कितने चुनाव चिन्ह वाले बिल्ले एकत्रित हो गए थे l य़ह दौर 1990 तक चला l
कभी कभी तो हम अपनी बनियान में कई पार्टियों के बिल्ले टांग लेते थे l हमें यह नहीं पता था कि कोई प्रत्याशी नाराज होगा या कोई गांव का आदमी हमारे ऊपर हंसेगा l कौन जीतेगा कौन हारेगा इसकी कोई चिंता नहीं थी l मेरे पिताजी शुरू से लेकर अंत तक कांग्रेस पार्टी के समर्थक रहे l वह सदैव उन्हीं की बड़ाई करते थे l प्रत्याशी कोई भी हो वोट वह हाथ के पंजे को ही देते थे l जब से चुनाव प्रचार शुरू होता था तब से लेकर के महीनों तक यानी वोटिंग वाले दिन तक गांव में बड़ी चहल पहल होती l मतदान कर्मियों की खूब आवभगत होती थी l हर आदमी इसमें रुचि लेता था और 70 से 80% लोग वोट डालने जाते थे l शहरों में नौकरी करने वाले लोग भी मतदान वाले दिन गांव वापस आ जाते थे l आज ठीक उसके उल्टा शहर में कोई वोट डालने नहीं जाता l लखनऊ जो उत्तर प्रदेश की राजधानी है यहां पर 40% से ज्यादा कभी वोट नहीं पड़ता l जबकि यहां पढ़े-लिखे लोग रहते हैं l अपने को लोकतंत्र का रक्षक बताते हैं l सबसे ज्यादा बहस करते हैं लेकिन चुनाव में कोई रुचि नहीं रखते l लोकसभा चुनाव में तो कई बार 30% से भी कम वोट पड़े हैं l जबकि गांव में पहले बहुत वोट पढ़ते थे और आज भी शहरों की अपेक्षा अधिक वोट पड़ते हैं l
चुनाव का माहौल ही बदल गया है पहले वॉल पेंटिंग होती थी, गांव की दीवारों पर खूब लिखा जाता था l चुनाव चिन्ह बनाये जाते थे l हम झंडे लेकर अपने छप्पर में लगाते थे l हम तो नासमझी में एक ही छत पर कई पार्टियों के झंडे लगा देते थे l न कोई डांटता था और न कोई नाराज होता था l आज चुनाव आयोग ने इस सब पर रोक लगा दी लेकिन फिर भी चुनाव महंगा हो गया है l कारण कोई भी हो मैं यह कहना चाहता हूं कि पहले के चुनाव में बड़ा मजा आता था l आज के चुनाव में न बच्चों को मजा आता है और न बड़े लोगों को l करोड़ों रुपए चुनाव में खत्म होते हैं l शायद इसीलिए जीतने वाला प्रत्याशी भी एक पंचवर्षीय योजना में करोड़पति बन जाता है l अब मेरे बच्चों को चुनाव में कोई रुचि नहीं दिखाई देती है l मेरे लिए भी चुनाव एक सरदर्द ही है l समाजसेवी होने के नाते सभी लोग आते हैं l सबसे झूंठ बोलते हैं कि आपको ही वोट देंगे l जबकि देना एक को ही है l
सबसे बड़ी बात यह है कि आज के चुनाव में बच्चों के लिए कुछ भी खास नहीं है l उन्हें चुनाव से कोई रुचि इसलिए भी नहीं है क्योंकि कोई भी प्रत्याशी बच्चों के हित की बात नहीं करता उनके लिए कुछ नहीं बोलता और न ही कुछ बांटता l वह सिर्फ धर्म और स्वार्थ की बात करता है l बच्चों के लिए खेल का मैदान, उत्तम शिक्षा के लिए स्कूल, अच्छे स्वास्थ के लिए अस्पताल आदि की कोई चर्चा तक नहीं करता l अब पहले जैसी बात नहीं l