थाना स्तर के तबादलों में भेदभाव का शिकार हो रहे कानपुर के पुलिसकर्मी

– थानों में तैनात पुलिस कर्मियों का ही 3 साल बाद तबादला क्यों इसके ऊपर के पदों पर अधिकारियों के कार्यालय में कई साल से अंगद की तरह पैर जमाए बैठे दर्जनों पुलिसकर्मिर्यों का भी क्यों नहीं ?

– इस दोहरे मानदंड से व्याप्त अंदरूनी असंतोष से प्रभावित हो रही पुलिस कर्मियों की कार्य क्षमता।

– कमिश्नरेट व्यवस्था लागू होने से पहले थानों और पुलिस चौकियों की नीलामी को लेकर भी चर्चा में रहा है कानपुर


सुनील बाजपेई
कानपुर। उत्तर प्रदेश पुलिस के सैकड़ों सिपाही, , दीवान , दरोगा और इंस्पेक्टर किसी न किसी तरह के विभागीय उत्पीड़न का शिकार अक्सर हो रहे हैं। यहां कमिश्नरेट में तैनात पुलिसकर्मी भी कुछ इसी तरह के हालातों का शिकार हैं। जिसका मुख्य संबंध थानों में सिपाहियों और हेड कांस्टेबलों की ट्रांसफर पोस्टिंग से जुड़ा हुआ बताया जाता है |
वैसे थानों में पोस्ट इंस्पेक्टर और चौकियों में पोस्ट सब इंस्पेक्टरों को भी इस दायरे से बाहर नहीं रखा जा सकता। अगर इसमें सबसे पहले सिपाहियों दीवानों की ट्रांसफर पोस्टिंग की चर्चा की जाए तो जिन पुलिसकर्मियों का पुलिस थानों में 3 साल का कार्यकाल पूरा हो जाता है। उन्हें पूर्व से जारी एक कथित नियम या फिर परंपरा के तहत उन्हें दूसरे थानों में ट्रांसफर कर दिया जाता है ,लेकिन सबसे खास बात यह कि यह नियम / परंपरा बड़े भेदभाव और दोहरे मानदंड वाली है, क्योंकि 3 साल पूरे होने पर तबादला केवल उन्हीं पुलिसकर्मियों का किया जाता है ,जो पुलिस थानों में तैनात रहते हैं जबकि एसीपी / डीएसपी, एसएसपी, एस पी , ए एस पी ,डीसीपी और एडीसीपी आदि पुलिस अधिकारियों के कार्यालयों में नियुक्त पुलिसकर्मियों पर यह नियम कदापि लागू नहीं होता | मतलब इन अधिकारियों के कार्यालयों में बहुत से पुलिसकर्मी कई कई सालों से अंगद की तरह पैर जमाए बैठे हैं लेकिन आज तक उनका तबादला कहीं नहीं किया गया। जबकि 3 साल पूरे होने पर उस पुलिसकर्मी सिपाही दीवान को थाने में नहीं रहने दिया जाता भले ही
जिसकी कार्य सरकार यानी जनहित के प्रति उसकी लगन , उसकी निष्ठा और उसकी मेहनत कितनी ही प्रशंसनीय क्यों हो। वहीं दोहरा मानदंड अपनाते हुए अधिकारियों के कार्यालयों में तैनात पुलिसकर्मी सालों तक एक ही पद पर जमे रहते हैं |
विभागीय सूत्रों की नजर में थाने में पोस्ट रहने वाले अपने किसी भी मातहत पुलिसकर्मी के बारे में सर्वाधिक जानकारी संबंधित इंस्पेक्टर को होती है | अगर 3 साल पूरे होने पर थानों से तबादले वाले नियम के अनुरूप पुलिस इंस्पेक्टरों की भी सहमति शामिल कर ली जाए
तो फिर कार्य सरकार को अंजाम देने के मामले में वह परेशानी कदापि नहीं रहेगी जो कि इस तरह के पुलिसकर्मियों के तबादलों के बाद अक्सर होती है |
सूत्रों के मुताबिक अगर ट्रांसफर पोस्टिंग के मामले में यह निंदनीय भेदभाव और दोहरा मानदंड वाला व्यवहार नहीं है तो फिर पुलिस थानों की तरह अधिकारियों के कार्यालयों में भी तैनात सिपाही और दीवानों का तबादला अन्यत्र क्यों नहीं किया जाता ?
विभागीय सूत्रों की मानें तो इनमें से कई पुलिस अधिकारियों के कार्यालयों में सालों से ऐसे भी पुलिसकर्मी तैनात हैं , जो कि अधिकारियों से मुलाकात कराने या फिर उनके प्रार्थना पत्र पर कार्यवाही करवाने का भरोसा और झांसा देकर प्रतिमाह हजारों की कमाई करने में भी सफल रहते हैं | और आज भी कर रहे हैं लेकिन सालों बीत जाने के बाद भी थानों में तैनात पुलिस कर्मियों की तरह उनका तबादला आज तक नहीं किया गया | इससे उन पुलिसकर्मियों के गिरते मनोबल से उनकी कार्य क्षमता भी प्रभावित हो रही है ,जो कि इस दोहरे मानदंड वाली व्यवस्था के शिकार हैं | केवल कांस्टेबलों और हेड कांस्टेबलों के संदर्भ में ही नहीं बल्कि
अधिकांश पुलिस इंस्पेक्टरों और सब इंस्पेक्टरों के बारे में भी लगभग यही बात कही जा सकती है। मतलब ऐसे कुछ ही भाग्यशाली इंस्पेक्टर और सब इंस्पेक्टर हुआ करते हैं जो ट्रांसफर पोस्टिंग के मामले में फुटबॉल होने या फिर जनहित में योग्य और कर्मठ होने के फलस्वरूप इस दोहरे मानदंड का शिकार होने से बच जाते हैं अथवा बचे हुए हैं | और इसका भी पूरा श्रेय जाता है ,उन पुलिस अधिकारियों को जो वास्तव में अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान और ईमानदार होने के फलस्वरूप यह भी जानते पहचानते हैं कि उनका कौन मातहत कितना कर्मठ और कैसा है?
जहां तक यहां कमिश्नरेट व्यवस्था लागू होने से पहले वाले हालातों का सवाल है | यहां कई ऐसे भी अधिकारी पोस्ट होते रहे हैं ,जो यहां के थानों चौकियों को 50 हजार से लेकर 5 लाख से भी अधिक में सरेआम नीलाम करने को लेकर मातहतों में चर्चा का विषय बन चुके हैं | मतलब उस समय की स्थितियां ट्रांसफर पोस्टिंग के मामले में मकान मालिक और किराएदार वाली जैसी थी | साथ में पगड़ी वाली व्यवस्था भी लागू थी | मतलब कमिश्नरेट व्यवस्था लागू होने से पहले अधिकांश थानों और चौकियों में इंचार्ज के रूप में पोस्ट होने का सर्वाधिक लाभ उसे ही मिला करता था जो पहले वाले से ज्यादा पगड़ी और मासिक किराया देने में सक्षम हुआ करता था। यानी जैसे ही कोई ज्यादा किराया और पगड़ी देने वाला मिल जाता था तो पहले वाले से थाना और चौकी रूपी मकान तत्काल खाली करा लिया जाता था |
फिलहाल वर्तमान संदर्भ में तो थानों और पुलिस अधिकारियों के कार्यालयों में तैनात पुलिसकर्मियों के तबादलों में दोहरे मानदंड वाली यह व्यवस्था पुलिसकर्मियों के बीच चर्चा के दायरे से बाहर नहीं है |

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