कांग्रेस शासनकाल में मिडिया की स्वतंत्रता पर लगाम कसने की हुई शुरुआत
(शाहनवाज़ हसन)
अविभाजित बिहार की पत्रकारिता को देश की आदर्श पत्रकारिता का नींव माना जा सकता है।
यहाँ पत्रकारिता की गुणवत्ता के मामले में कभी कोई समझौता नहीं किया।
अस्सी के दशक में जब तत्कालीन मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र की सरकार ने प्रेस की स्वतंत्रता पर लगाम लगाना चाहा,
जब प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के राज में आपातकाल लगाए जाने के दौरान बिहार के पत्रकार प्रेस की स्वतंत्रता को सुरक्षित रखने के लिए तब भरपूर विरोध किया और जेल भेजे गए।
उल्लेखनीय है कि बिहार के पत्रकारों ने देश के कई मीडिया संस्थानों के “स्तम्भ के रूप” में कार्य किया है उनकी सोच स्पष्ट थी, उनमें लेखन का साहस था, उनके अंदर सत्य, प्रतिबद्धता, निष्ठा और धैर्य था।
वर्तमान काल में एक खतरनाक प्रवृत्ति देखने को मिल रही है जिससे ऐसा लगता है कि सत्य को लिखने का अधिकार कहीं खो गया है।
यह केवल उस अधिकार का उल्लंघन नहीं है जिसकी गारंटी संविधान के अधीन दी गयी है अपितु यह स्वतंत्र और निष्पक्ष पत्रकारिता के लिये भी एक खतरा है जिसके परिणामतः राज्य में एक अप्रिय स्थिति पैदा हो गयी है।
सरकार चाहे किसी दल की हो स्वतंत्र मीडिया सबकी निगाह में खटकता रहा है।यह कहा जाए कि मीडिया पर अंकुश लगाने की शुरुआत सत्य पर पहरा लगाने की पहल देश मे पहली बार कांग्रेस शासनकाल में 80 के दशक से शुरू हुआ तो गलत नहीं होगा।
बिहार की राजधानी पटना से प्रकाशित 2 स्थापित दैनिक अखबार “सर्चलाइट” एवं “इंडियन एक्सप्रेस” बंद कर दिए गए।
मीडिया पर सरकार के प्रत्यक्ष दबाव के कारण छोटे से आंदोलन से संबंधित समाचार को भी प्रकाशित करने से राज्य सरकार द्वारा रोक दिया जाता है, जो अन्यथा जनता की चिंता सम्बन्धी मामलों को उठाने के बारे में जाना जाता था।
आंदोलन से संबंधित समाचारों को समाचार पत्रों के सार्वजनिक अंकों में स्थान नहीं दिया जाता है, जो सरकार के कार्यों के सम्बन्ध में असहज प्रश्न उठाने का साहस करते हैं और सुशासन की कमजोरियों और चूकों की ओर इशारा करती है।
सरकार के हाथ में जब तक मिडिया पर नकेल कसने की लगाम रहेगी तब तक निष्पक्ष पत्रकारिता की बात करना बे-मानी है।
सरकार चाहे किसी राजनीतिक दल की हो मिडिया की स्वतंत्रता की बात तो सभी करते हैं, पर इस स्वतंत्रता को धरातल पर कोई देखना नहीं चाहता।