मेरा गांव रामानंद सैनी

मेरा गांव –
अभी हाल ही में मैं अपने गांव पालपुर बैरागी खेड़ा, हरदोई गया था l जहां पर मुझे एक बुजुर्ग शुभचिंतक जो उसी दिन काल कलवित हुए थे की शव यात्रा में शामिल होना था l मैंने देखा कि उनकी शवयात्रा में हजारों लोग शामिल थे l मेरे कहने का मतलब यह है कि आज भी गांव में जब कोई प्रभु की गोद में जाता है तो उसकी अंतिम यात्रा में गांव के हर घर का एक सदस्य शामिल होता है l श्मशान घाट पर आप पूरे गाँव के लोगों से मुलाकात कर सकते हैं l इस प्रकार वहां पर व्यक्ति की अंतिम यात्रा में सैकड़ों लोग शामिल हो जाते हैं और जब तक दाह संस्कार पूरी तरीके से नहीं हो जाता है यात्रा में शामिल होने वाले व्यक्ति वहीं पर रुकते हैं l मिट्टी उठने तक लोगों के घरों में चूल्हे तक नहीं जलते हैं l कपाल क्रिया के पश्चात वापस आने पर उस व्यक्ति के घर में जाते हैं, नीम के पत्ते चबाते हैं, मिष्ठान से मुंह मीठा करते हैं, उसके बाद अपने घर आकर के स्नान करते हैं l दुख में शामिल होने की यह प्रथा आज भी गांव में उसी प्रकार से जारी है जिस प्रकार से मैंने 35 वर्ष पहले देखी थी l शहरों में इसके उल्टी व्यवस्था है l यहां पर अगर व्यक्ति बहुत बड़ा नहीं हुआ, बहुत बड़ा से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से जिससे लोगों का स्वार्थ हो जैसे कोई नेता, अभिनेता, व्यवसाय या समाजसेवी l इन लोगों के अलावा साधारण व्यक्ति की शव यात्रा में बहुत कम लोग शामिल होते हैं l मोहल्ले का ही आदमी नहीं जाता है l उसके स्वार्थी मित्र नहीं जाते l ज्यादातर मैंने देखा है कि गिने-चुने 50 आदमियों के मध्य शव यात्रा संपन्न हो जाती है l रोने धोने की आवाज नहीं सुनाई देती है l लखनऊ में मैं 500 से अधिक शव यात्राओं में शामिल हुआ हूँ l जिनमे सैकड़ों यात्राएं ऐसी थी जिनमें 20 आदमी भी नहीं थे l लावारिश शवों के अंतिम संस्कार में अकेला होने के नाते मुझे अपने नाबालिक बेटे को भी शामिल कराना पड़ा l शहर में शव को कंधे देने वाले लोग नहीं मिलते l बस से ले जाकर के उसे उतारते ही श्मशान घाट पर लकड़ियों या बिजली वाले शव दाह की ट्रे पर रख देते हैं l जैसे ही शव में अग्नि दी जाती है, लोग रफूचक्कर होने लगते हैं l अंतिम क्रिया संपन्न होने के बाद तक केवल घर के लोग ही बचते हैं l कल युग से स्वर्ग जा चुके व्यक्ति की चर्चा करते हुए भी बहुत कम मिलते हैं l मैंने अनुभव किया कि आज भी जो सुख दुख में एकता के भाव गांव में मिलते हैं वह शहरों में नहीं मिलते l यहां किसी के पास फुर्सत नहीं है, आपाधापी की जिंदगी है l एक पड़ोसी दूसरे को नहीं जानता है, मजे की बात है कि वह जानना भी नहीं चाहता है l सिर्फ पैसा और पैसा, अगर आग लग जाएगी तो पड़ोसी वीडियो बनाएगा, ज्यादा से ज्यादा पुलिस को फोन कर देगा, लेकिन आग बुझाने का प्रयास नहीं करेगा l जबकि गांव में पूरा गांव बाल्टी लेकर के दौड़ता है, पूरा प्रयास करता है और उसमें सफल भी हो जाता है l किसी की शादी हो या किसी के घर में गम का माहौल, कोई उत्सव हो या आफत तो गांव की लोगों की एकता को देखते ही बनता है l मुझे तो अपना गांव छोड़ें हुए 35 वर्ष से अधिक का समय हो गया है l लेकिन आज भी जब गांव जाता हूं तो जबरदस्त एकता देखने को मिलती है l पूरा गांव सम्मान करता है, मेरा हालचाल पूछता है, मेरा ही नहीं मेरे दोनों भाइयों का हाल-चाल लेता है l जिसके घर जाता हूं वही चाय बनाने, नाश्ता कराने के लिए हाथों हांथ लेता है l मन तो यही करता है अपने बच्चों की शादी करके फिर से गांव में बस जाऊं l जहां पर प्राकृतिक माहौल है, खेती है, पिताजी के द्वारा बनवाया हुआ मकान है और गांव के लोगों का प्यार भरा माहौल है l

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