(शाहनवाज हसन)
लोकतंत्र ; यानी “जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन।” लोकतंत्र में जनहित ही सर्वोपरि होता है। द्वेष की भावना के लिए लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं होता। बदले की भावना अथवा दुर्भावना से कोई कार्रवाई लोकतांत्रिक व्यवस्था में नहीं की जा सकती। लोकतंत्र से जनता की एक अपेक्षा यह भी है कि इस शासन व्यवस्था में उसका जीवन सुरक्षित रहे तथा शांति और सुरक्षा का वातारण बना रहे। भाईचारा और सहयोग पर आधृत विकास की प्रक्रिया व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का सम्बल बने। इन्हीं गुणों के कारण लोकतंत्र एक नैतिक व्यवस्था बनता है। लोकतंत्र में घृणा, द्वेष, ईर्ष्या, स्वार्थ, हिंसा व संघर्ष जैसी प्रवृत्तियों के पनपने से नैतिकता समाप्त हो जाती है। आंतकवाद लोकतंत्र के समक्ष प्रमुख चुनौती है।
केन्द्र अथवा राज्य में सरकार किसी राजनीतिक दल की रही हो, सत्ता में आते ही अपने प्रतिद्वन्द्वियों को परेशान करने का काम सभी करते आये हैं। यूपीए के शासनकाल में नितिन गडकरी के ख़िलाफ़ आरोप लगाये गये थे कि उनकी कम्पनी में फर्जी शेयर धारकों के नाम हैं। इसके लिए एजेंसी का भी दुरुपयोग किया गया था। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के ऊपर भी अपने प्रतिद्वन्द्वियों के विरुद्ध षड्यंत्र रचने का आरोप लगाया जाता था।
केन्द्र सरकार से अधिक बदले की भावना की राजनीति राज्यों में देखी जाती रही है। हमारे सामने तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों का उदाहरण है, जहां राजनीतिक द्वेष से कार्रवाई के कई मामले सामने आये हैं। सत्ताधारी राजनीतिक दलों द्वारा सबसे अधिक केन्द्रीय जांच एजेंसी सीबीआई के दुरुपयोग की बात सामने आती है।राजनीतिक विद्वेष की भावना से इसके इस्तेमाल के आरोप भी सुर्ख़ियों में रहे हैं। कांग्रेस ने भी इसका लाभ जम कर उठाया था। राजनीतिक विशेषज्ञ इसे अब भारत में राजनीति का हिस्सा कहते हैं।
यूपीए और भाजपा ; दोनों ने ही एक-दूसरे के ख़िलाफ़ ऐसी कार्रवाई की है। राज्यों में भी ऐसा हुआ है और केन्द्र में भी, मगर कुछ अलग उदाहरण भी मौजूद हैं।
पूर्व कांग्रेस नेता नटवर सिंह की प्रकाशित पुस्तक में भी इसका ज़िक्र है कि अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते हुए कई बार विपक्ष के नेताओं के कामों को विशेष तरजीह दी गयी। पुस्तक में उन्होंने इशारा किया है अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते कैसे विपक्ष के सदस्यों को सरकार द्वारा सहूलियतें भी समय-समय पर दी गयीं। मुझे एक मामला याद आता है, जो सोनिया गांधी की सुरक्षा से सम्बन्धित था, जब वह विपक्ष की नेता थीं। एनडीए के कार्यकाल में प्रधानमंत्री के कार्यालय से उस मामले पर तत्काल कार्रवाई की गयी। वहीं, कुछ एक राज्यों में तो सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच संवाद तक की स्थिति नहीं रही है। ऐसी भी मिसालें देखने को मिली हैं।
वर्तमान राजनीति में अब ऐसी मिसाल नहीं मिल सकती, जो उदाहरण पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पेश किया था। बात जब देश का प्रतिनिधित्व करने की थी, तो विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेई संयुक्त राष्ट्र संघ में देश का पक्ष रख रहे थे। आज जहां सत्ता पक्ष के ऊपर बदले की भावना से राजनीति करने का आरोप लग रहा है, तो वहीं विपक्ष भी राष्ट्रीय हित के मुद्दों पर भी सरकार को कठघरे में खड़ा करने से नहीं चूकता।