24 अगस्त हलषष्ठी व्रत पर्व- सनातन धर्म के इस पर्व मे जगत कल्याण की भावना समाहित

सुरेश सिंह बैस शाश्वत

भादो के महीने में पुत्रवती महिलाओं द्वारा संतान के कुशल मंगल और उनके कल्याण की भावना से हलषष्ठी का व्रत आज के दिन पूरी श्रद्धा के साथ रखा जाता है। आज के इस व्रत में बिना हल जोते बोई गई अनाज जिसे पसहर चावल कहते हैं (ये बिना उगाये तालाव पोखरों में उगे पौधे होते हैं जिनसे निकाले गये चावल को पसहर चावल कहते हैं ) साथ ही बिना जोती बोई गई सब्जियों तथा अनिवार्य रूप से भैंस के दूध दही घी के बने भोजन को एक समय ग्रहण कर व्रत को महिलायें पूरा करती हैं।

यह व्रत भादो मास के कृष्ण पक्ष पंचमी के दिन से ही नियमतः प्रारंभ हो जाता है। अर्थात व्रत रखने वाली महिलायें हलषष्ठी के एक दिन पूर्व से ही दिन में एक बार भोजन ग्रहण करती हैं तथा हलषष्ठी के दिन निराहार रहकर व्रत का पूजापाठ करती हैं इसके पश्चात् एक समय व्रतानुसार यथोचित आहार ग्रहण करती हैं। व्रत की तैयारी के लिये गृहणियाँ अपने घर को यथानुसार लीप झाड़कर शुद्ध करती हैं। इसके बाद नदी तालाब या जैसी सुविधा हो वहाँ स्नान करती हैं। स्वच्छ और नवीन परिधान आदि पहनकर सौभाग्य ( सुहाग) की सभी श्रृंगार से सज्जित हो, दोपहर बाद अपरान्ह में एक स्वच्छ स्थान में गौ के गोबर से लीपकर चौक बनाकर वहाँ हलषष्ठी देवी की पूजा सम्पन्न करते हैं। वहीं दीवारों या अलग से एक मूर्ति, हलषष्ठी देवी की बनाकर रखा जाता है। हलषष्ठी माता के चित्र में घी और सिंदूर का लेप लगाकर उसे पूजा जाता है। हलषष्ठी देवी की मूर्ति को पीढ़े में रखकर कुश या पलाश के पत्ते के आसन में पूर्व दिशा की ओर मुँह करके देवी की पूजा सम्पन्न की जाती है। पूजा स्थान में बच्चों के खिलौने तथा तोते की मूर्ति भी रखते हैं। कलश गणेशजी की पूजा कर हलषष्ठी देवी की पूजा पर रखा जाना चाहिये।
वहीं दो छोटे छोटे गड्ढे खोदकर बनावटी तालाब के प्रतीक में उसमें जल (गंगाजल मिलाकर) भरकर जल देवता की भी पूजा की जाती है। पूजा के अंत में महुये के पत्ते में जल में उपजे अन्न ( पसहर चावल) का भोजन ग्रहण किया जाता है। हल चले जमीन में इस दिन पुत्रवती महिलाओं को चलने की मनाही रहती है। उपरोक्त प्रकार से पुत्रवती महिलायें हलषष्ठी देवी का व्रत पूजन करती है, उन्हें मनवांछित फल की प्राप्ति पूजा के दौरान हलषष्ठी देवी के पूजा विधि अनुसार पांच कथाएँ सुनना भी अनिवार्य माना गया है जो निम्न हैं।
पहली कथा: पुराने समय में चंद्रव्रत नामक राजा का एकपुत्र था। राजा ने जनता के लिये एक तालाब खुदवाया, पर वह न जाने क्यूँ बिलकुल ही सूखा रह गया। राजा को इससे बहुत दुःख हुआ । क्योंकि उसकी प्यासी प्रजा को पानी नहीं मिल रहा था। निद्रावस्था में एक दिन राजा को स्वप्न में देव ने कहा- “राजन तुम अपने एकलौते पुत्र की बलि दोगे तभी इस तालाब में पानी भरेगा। प्रातः राजा ने स्वप्न के बारे में सभासदों से चर्चा की। सभी ने इस पर सहमति जताई पर मन से राजा अपने पुत्र की बलि देने के लिये तैयार नहीं हुआ। राजा के पुत्र को जब इस बात का पता चला तो वह स्वयं जाकर जल समाधि ले लिया। क्षणभर में तालाब लबालब भर गया। फूल खिल गये पंछी चहचहाने लगे। राजा को हलषष्ठी देवी की पूजा का ज्ञान होने पर उन्होंने रानी से यह व्रत पूरे विधिविधान से संपन्न कराया। पूजा के प्रभाव से राजा का पुत्र तालाब से सकुशल बाहर निकलकर आ गया।
दूसरी कथा-: एक गाँव में रेवती और मानवती नाम की दो सौतें रहती थीं। मानवती के दो पुत्र थे मगर रेवती के कोई औलाद न होने के कारण वह बच्चों के प्रति ईर्ष्या रखती थी। इसी उधेड़बुन में उसने एक दिन मानवती से कहा तुम्हारे पिता बहुत बीमार हैं। यह सुनकर वह पिता को देखने चली गई। उसके जाते ही रेवती ने मानवती के दोनों पुत्रों को मार कर फेंक दिया। उधर पिता के घर मानवनी ने हलषष्ठी देवी का व्रत रखकर देवी माँ से प्रार्थना की कि मेरे बच्चों की रक्षा करना माता। हलषष्टी देवी की कृपा से मानवती के दोनों पुत्र उसी गाँव के बाहर खेलते मिले।

तीसरी कथा : एक स्थान में

धनवान ग्वाला रहता था, उसकी पत्नी बडी चतुर चालाक और कंजूस थी। उसके पांच पुत्र थे। अपनी कंजूसाई के चलते वह हलषष्ठी व्रत के दिन गाय के दही को भैंस की दही कहकर सभी जगह बेच आई। इस पाप के कारण उसके पाँचों पुत्र मर गये। घर आकर जब उसने देखा तो सभी लड़के मर चुके थे। वह माथा पटककर रोने लगी। पड़ोसियों ने पूछा क्या हुआ? जब उसने सभी बात बताई तो उसकी सखी ने कहा कि तुम तत्काल सभी के घर से गाय की दही लेकर भैंस की दही दे आओ ग्वालिन ने ऐसा ही किया। घर आकर ग्वालिन ने देखा कि उसके पांचों पुत्र जीवित हो उठे हैं तब से ग्वालिन ने हलषष्ठी व्रत को रखना प्रारंभ कर दिया।

चौथी कथा: दक्षिण दिशा में जंगल पहाड़ से घिरा हुआ एक गाँव था जहाँ एक धनवान भिलिन रहती थी। उसकी पाँच लड़कियाँ थी। भिलिन की एक दासी थी जिसके दो पुत्र थे। एक दिन भिलिन ने दासी को जंगल से लकड़ियाँ लाने को भेजा। उसके पीछे दासी के लड़कों का पड़ोस के लड़कों से झगड़ा हो गया जिसमें दासी के दोनों पुत्र मारे गये। भिलिन को यह जानकर बहुत दुःख हुआ उसने दासी के बच्चों का अंतिम संस्कार करवा दिया। इस बीच दासी जंगल से लकड़ियाँ लेकर लौट रही थी तो उसे रास्ते में पाँच स्त्रियाँ हलषष्ठी देवी की पूजा करती मिली। दासी ने वहाँ बैठकर पूजा के विधि विधान को देखा और मन ही मन हलषष्ठी देवी की पूजा कर प्रार्थना किया। जिसके प्रभाव से उसके दोनों पुत्र जीवित हो खेलने लग गये। यह देखकर भिलिन को भी आश्चर्य मिश्रित अत्यंत प्रसन्नता हुई।

पाँचवीं कथा-: एक बनिया था । उसके छह पुत्र थे। पर सभी के अकस्मात मर जाने के कारण उसकी पत्नी दुःखी होकर वन में चली जाती है। वहाँ उसे एक ऋषि मिलते हैं जिनसे उसने रोते हुये सारी गति बताई। तब मुनि ने ध्यान लगाकर देखा और बनिया की पत्नी को बताया कि तुम्हारे पुत्र ब्रम्हलोक में हैं। फिर उन्होंने ध्यान लगाकर उसके पुत्रों से कहा कि बालको वहाँ तुम्हारी माता बहुत दुःखी हैं चलो! तब बालकों ने कहा कि वे उनसे दुःखी होकर आये हैं। अब हमें पाने के लिये उन्हें हलषष्ठी व्रत करना होगा, और पूजा के अंत में मेरी पीठ को पोता से मारें। इस पुण्यकार्य से मैं दीर्घायु हो जाऊंगा। उन्होंने उस स्त्री को सारी बातों से अवगत कराया जिसके अनुसार उस स्त्री ने हलषष्ठी देवी की पूजा की। जिसके प्रभाव से उसे पुनः एक लड़का होने पर पूजा के अंत में बच्चे के पीठ को पोता से मारा और वह दीर्घ जीवन को प्राप्त किया।

इसी प्रकार हलषष्ठी देवी की पूजा कर द्रौपती ने उत्तरा (बहू) के साथ पूजा करके उसके गर्भ में मरे बालक को जीवित कराया। जिसका नाम परीक्षित पड़ा। वासुदेव पत्नी देवकी ने भी हलषष्ठी देवी की पूजा कर कृष्ण जैसे बालक की माता बनने का सौभाग्य प्राप्त किया।

सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”

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