भारत की शिक्षा प्रणाली में नूतन आयामों के समायोजन की आवश्यकता

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*आलेख*
डॉ. स्नेहलता द्विवेदी
कटिहार,बिहार
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बालक जन्म से बिल्कुल अबोध और निर्विकार होता है। परिवार, समाज और शिक्षक उसमें विविध रंग, गुण और संस्कार भरते हैं जिसके फलस्वरुप बालक के व्यक्तित्व का क्रमशः विकास होता है। इस प्रकार निर्मित व्यक्ति परिवार, समाज और राष्ट्र के लिए एक योग्य सबल नागरिक बन पाता है।

बालक को नागरिक या समाज का संबल के रूप में गढ़ने की प्रक्रिया में वर्षों लगते है।इसमें शिक्षक के रूप में शुरुआत बालक की प्रथम गुरु उसकी माँ से ही होती है, वैसे वैदिक मान्यता यह भी है कि माता के गर्भ से ही बालक सीखना प्रारम्भ कर लेता है।अस्तु जन्म पश्चात घर परिवार के अतिरिक्त सामान्य शिक्षा हेतु बच्चा विद्यालय एवं महाविद्यालय जाता है।

आइये हम विचार करें कि क्या हमारी वर्तमान शिक्षा प्रणाली के पाठ्यक्रमों के फलस्वरूप निर्मित युवा देश, समाज और राष्ट्र की चुनौतियों का सम्मान करने और बिना विचलित हुए कर्तव्य का निर्वहन करने में समर्थ हैं यदि हाँ तो ठीक है और यदि नहीं तो शिक्षा मे परिवर्तन कैसा और क्यों किया जाना चाहिए?

शिक्षा का प्रथम उद्देश्य मानव का निर्माण है तो क्या हमारे युवा चरित्रवान और नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण है? निश्चित रूप से आपका जवाब नहीं होगा।ऐसी स्थिति में हमने अपनी शिक्षा के पाठ्यक्रमों युवा मे संस्कारयुक्त नैतिक शिक्षा को समाहित करना ही होगा।

वास्तव में बालमन में ही हमें नैतिक भारतीय मूल्यों और आदर्शो को बैठाना होगा। मैकाले जनित शिक्षा से भारत की शिक्षा अभी तक आजाद नहीं हुई है सम्भवतः भारत को सांस्कृतिक आजादी की लड़ाई की शुरुआत पाठशाला से ही करनी पड़ेगी। सांस्कृतिक़ चेतना परिष्कार और राष्ट्रीय स्वाभिमान के उच्च मानक स्थापित करने होंगे।

पुनः तर्कसंगत और युक्तिपूर्ण चिंतन की प्रक्रिया को विकसित करने का कौशल शिक्षा का मूल उद्देश्य होना ही चाहिए।इस हेतु चिंतन शोध और भारतीय ज्ञान परम्परा के अनुरूप शास्त्रार्थ की परम्परा विकसित करना ही होगा।राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 मे सरकार द्वारा समाजोपयोगी, भारतीय परम्परा के साथ अत्याधुनिक कौशल चिंतन को समाहित करने का प्रयास किया गया है। यह सराहनीय है।

भारत वर्षो तक गुलाम रहा।इसका प्रभाव भारतीय शिक्षा, इतिहास और भारतीय समाज पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह चिंतनीय है। वास्तव में गुलाम देश की संस्कृति इतिहास और मानवीय मूल्यों को शासक देश तहस नहस कर अपने वर्चस्व को स्थापित करता है।भारत को इस वर्चस्व को समाप्त करते हुए स्व के भाव की स्थापना करनी ही होगी।इस हेतु इतिहास के पूर्न मूल्यांकन और पूर्न लेखन करने की आवश्यकता है। हमारी इतिहास की पुस्तकों की समीक्षा होनी ही चाहिए और आवश्यक परिमार्जन किया जाना चाहिए।

आधुनिक काल में अत्याधुनिक वैज्ञानिक आवश्यकताएं हैं।अतः इस हेतु निश्चित रूप से विशिष्ट व्यवस्था की जानी चाहिए। विज्ञान आज की शुरुआत सबसे बड़ी जरूरत है, हमें वैश्विक पटल पर यदि आगे रहना है तो विज्ञान की विशेष शिक्षा अपने विद्यार्थियों को देनी ही पड़ेगी। इस हेतु विश्व के मानक के अनुरूप एवं श्रेष्ट विशिष्ट शिक्षण संस्थान आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है।

शिक्षा का सामाजिक और राजनैतिक पहलु भी है। आज की सबसे बड़ी सामाजिक आवश्यकता सर्व समावेशी माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा है। देश को समान शिक्षा प्रणाली की दिशा मे बढ़ना चाहिए।क्रमशः हम समान शिक्षा निश्चित रूप से लागू कर पायेंगे।इसमें वक़्त लगेगा। अमीर और गरीब के लिए, जाति और धर्म विशेष के लिए शिक्षा की अलग अलग धारा और संस्थान देश की अस्मिता को खोखला और क्रमशः कमजोर करते हैं। यदि भारत की विविधता को समाहित करना भी है तो राष्ट्रीय मूल धारा को कमजोर कर बिल्कुल ही नहीं किया जाना चाहिए।

इस प्रकार हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि भारत मे शिक्षा का मूल उद्वेश्य प्राप्त करने के लिए, शिक्षा का राष्ट्रीय भावना और मूल्यों के अनुरुप गुणात्मक और सर्वसमावेशी विकास करने के लिए शिक्षा के नीति निर्धारको और शिक्षाविदों को अभी और चिंतन करना होगा एवं शिक्षा को लागू करने वाले तंत्र को भी मजबूत करना होगा।

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