चम्पारण में गांधी – डॉ. नन्दकिशोर साह

गांधी जी भले हमारे बीच नहीं है, लेकिन उनकी विचारधारा और स्मृतियाँ आज भी मौजूद है। आज भी, गाँधी जी की पसंदीदा जगहों पर देष-विदेष के लोग उन्हें महसूस करने आते है। इस कड़ी में चम्पारण का गाँधी की राजनैतिक जिन्दगी में निसंदेह बहुत महत्वपूर्ण स्थान रहा है। गाँधी जी ने स्वंय बार-बार स्वीकार किया है कि चम्पारण ने ही उन्हें हिन्दुस्तान से परिचय कराया। बापू की कर्मभूमि चम्पारण की पवित्र धरती भारतीय इतिहास के पन्नों पर सादगी और सौहार्द के लिए स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। यहाँ केवल महानेता ही नहीं बल्कि देवी-देवता भी जन्म लेकर अपने को गर्वान्वित समझा है। साहित्यकारों ने इस महानगरी की प्राकृतिक सुन्दरता पर अथक कलम चलाया है, यहाँ की नदियों में अपनी लेखनी डूबो-डूबो कर साहित्य की मेढ़ बनाई है।

उपनिवेषिक षासन से पीड़ित ग्रामीण भारत में षोशित किसान परिवारों के पक्ष में अहिंसात्मक सत्याग्रह की षुरूआत महात्मा गाँधी द्वारा चम्पारण में हुई थी। मानवीय मुल्यों से परिपूर्ण हमारी आजादी की लड़ाई में चम्पारण के प्रसंगों का विलक्षण महत्व रहा है। महात्मा गाँधी को बुद्धिजीवी, किसान, श्रमिक वर्ग के साथ-साथ सत्याग्रही, समाज सेवी आदि अनेक क्षेत्र के लोगों के विचारों पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा।

गाँधी जी ने अंग्रेजी षासन में निलहों के अत्याचार से पीड़ित, षोशित यहाँ के किसानों व आम लोगों के अन्दर चम्पारण की मिट्टी के गुण को जागृत कर अंग्रेजों को सात समुन्दर पार खदेड़ दिया। नील की खेती का काला अध्याय चम्पारण के इतिहास की पहचान है। षुरूआत व्यापारी से जमींदार बनें अग्रेजों ने बेतिया राजा से तालमेल कर संयुक्त चम्पारण की लगभग आधी भूमि को अपने अधीन कर लिया, जिन पर वे नील की खेती कराते थे। तीन कटिया कानून बनाया। तब प्रति एक बीघा जमीन पर तीन कट्ठा नील की खेती करना किसानों के लिए अनिवार्य हो चला था। उपर से चालीस कर भी जबरन थोंपे गये थे। कानून नहीं मानने का परिणाम क्रूरता का नंगा नाच था। सन् 1892 में हुए सर्वेक्षण के अनुसार चम्पारण में नील के 21 कारखाने थे। तब लगभग 9,570 एकड़ भूमि में नील की खेती होती थी।

1906 में किसानों ने उपद्रव षुरू किया।ढ़ाका थाना क्षेत्र के तेलहरा कोठि के प्रबंधक ढ़लूम फील्ड की हत्या कर दी गयी। साठी में षेख गुलाब के नेतृत्व में किसानों ने सभा कर संघर्श का एलान किया। कोटवा के जसौली पट्टी गाँव निवासी बाबू लोमराज सिंह, षीतल राय आदि भी रैयतों को संगठित कर रहे थे।

1908 में परसा, भलहिया, बैरिया और कुड़िया कोठी में नीलहों पर हमले हुए। प्रतिरोध में आम लोगों के खिलाफ 57 मुकदमें दर्ज किये गये। इसमें कुल 226 को सजा हुई। किसान स्व0 शीतल राय को 30 माह की कैद व अन्य से तीस हजार रूपये सामूहिक जुर्माना वसूला गया।

1914 में बाबू लोमराज सिंह ने पीपराकोठी के मैनेजर नार्मन के खिलाफ उस समय के कमिष्नर को लगभग सात सौ किसानों का एक हस्ताक्षरयुक्त आवेदन सौंपा था। वहीं पंडित राज कुमार षुक्ल नील के दागदार धब्बे से किसानों को मुक्त कराने के लिए इस मुदद्े को विभिन्न मंचो पर उछालते रहे। उन्होनें 1915 में छपरा के प्रान्तीय सम्मेलन के मंच से रैयतों की पीड़ा से लोगों को अवगत कराया।

दिसम्बर, 1916 में पंडित राज कुमार षुक्ल ने लखनऊ में आयोजित भारतीय राश्ट्रीय काँग्रेस के अधिवेषन में भी इस मुदद्े को लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, पं0 मदन मोहन मालवीय व गाँधीजी के समक्ष रखा। फिर पंडित षुक्ल साबरमती आश्रम गये और गाँधीजी को लेकर पटना, मुजफ्फरपुर होते हुए 15 अप्रैल 1917 को अपराह्न 300 बजे चम्पारण के मोतिहारी रेलवे स्टेषन पर उतरें। उनके आगमन से चम्पारण के किसानों के हृदय में धधकती ज्वाला को मानों हवा मिल गयी। गाँधीजी के साथ बाबू धरनीधर और बाबू रामनवमी प्र0 वकील आये थे। उनके साथ गाँधीजी ने दूसरे ही दिन किसानों की समस्याओं की पड़ताल षुरू कर दी। महात्मा गाँधी जब षहर के धर्म समाज चैक स्थित गोरख बाबू के मकान में ठहरे थे। उसी समय बाबू लोमराज सिंह ने यहाँ के किसानों के दर्द से उन्हें अवगत कराकर जसौलीपट्टी ले जाने को तैयार करा लिया। दूसरे दिन हाथी पर सवार होकर गाँधीजी अपने वकीलों के साथ जसौलीपट्टी के लिए प्रस्थान कर रहे थे। इसी बीच चंद्रहिया पहुँचते ही उन्हें नोटिस मिली, जिसमें तत्कालीन कलक्टर डब्ल्यू0बी0 हैकाक ने उन्हें जिला छोड़ने का आदेष दिया था। अंगे्रजी प्रषासन द्वारा गाँधी को चम्पारण छोड़ने का फरमान आग में घी का काम किया। गाँधी जी वापस मोतिहारी आ गये, लेकिन जिला छोड़ने से इनकार कर दिया। परिणाम स्वरूप धारा 144 के तहत् जारी सम्मन के आलोक में 18 अप्रैल, 1917 को एस0डी00 कोर्ट में दण्डाधिकारी के समक्ष उपस्थित होकर ऐतिहासिक बयान दिया, जिससे पूरे विष्व को सविनय अवज्ञा का नया मंत्र मिला।

उक्त बयान गाँधी संग्रहालय, मोतिहारी में षिलापट्ट पर गांधी स्तूप के निकट लिखा हुआ है। इस ऐतिहासिक दिन को यहाँ चम्पारण स्तृति दिवस के रूप मे याद किया जाता है। इस बयान के महज चैथे दिन मुकदमा उठा लिया गया। इससे गाँधीजी की एक अलग पहचान बनी और चम्पारण स्वाधीनता आन्दोलन में एक मिषाल बन गया। इससे प्रभावित गाँधी ने पूरे चम्पारण दौरे का एलान किया। 22 अप्रैल 1917 को बेतिया पहुँचे। 14 नवम्बर को ढ़ाका के बड़हरवा, लखनसेन, 20 नवम्बर को भितिहरवा तथा 17 जनवरी 1918 को मधुबन में पाठषाला खोली।

06 अप्रैल 1936 को गाँधीवादी नेता पं0 प्रजापति मिश्र के प्रयास से 103 बीघा जमीन में ग्राम सेवा संघ की स्थापना कुमार बाग के वृन्दावन में की गयी। वृन्दावन संघन क्षेत्र में 35 बुनियादी विद्यालय खोले गये, जिसमें 17 अप्रैल, 1939 में वृन्दावन में स्थापित विद्यालय को देष का पहला बुनियादी स्कूल होने का गौरव प्राप्त है।

इसी क्रम में ग्राम सेवा संघ का पंचम एवं अंतिम अधिवेषन पं0 प्रजापति मिश्र के निर्देषन में 2 मई से 9 मई तक चला जिसमें गाँधीजी के अलावा काका कालेलकर, सरदार बल्लभ भाई पटेल, भूला भाई देसाई, किषोरी लाल सहस्त्रबुद्धे, खान अब्दुल गफ्फार खां, मधुबाला, आचार्य जे0बी0 कृपलानी, डा0 राजेन्द्र प्रसाद, आषा देवी, आर्य नापरम, संत विनोवा भावे, डा0 कृश्ण सिंह, डा0 अनुग्रह नारायण सिंह, आचार्य बद्री नारायण वर्मा, डा0 जाकिर हुसैन आदि महान विभूतियाँ पधारें।

अगस्त, 1942 में बम्बई के काँग्रेस कार्यसमिति में गाँधीजी के नेतृत्व में अंग्रेज भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित हुआ। 9 अगस्त, 1942 को गाँधी समेत सभी बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर जेल में बंद कर दिया गया। चम्पारण के पं0 प्रजापति मिश्र भी गिरफ्तार कर लिये गये। लोगों ने कुमारबाग से चनपटिया तक रेलवे लाईन को उखाड़ दिया। 13 अगस्त, 1942 को सुगौली में इंजन और रेलवे को क्षतिग्रस्त कर दिया। हर तरफ करो या मरो का नारा गुँजने लगा। 24 अगस्त, 1942 को बड़ा रमना बेतिया में निहत्थे प्रदर्षनकारियों पर अंग्रेजों ने मषीनगन से फायरिंग की। इसमें चम्पारण के आठ सपूत षहीद हो गये। इस तरह इतिहास की खुदाई में चम्पारण के हीरों की चमक काफी गहराई से निकलती दिखती है। हिमालय के दक्षिण में बसा चम्पा का वन आदि कवि महर्शि बाल्मीकि की रचना स्थली, लव-कुष की जन्म स्थली, भक्त ध्रुव का तपोवन, बौद्धों का स्मारक एवं अषोक का स्थल है। जहाँ कल-कल निनाद करती प्रवहमान नारायणी जैसी पवित्र सरिता, अपनी धाराओं में सोना लुटाती पहाड़ी-नदियों, दर्जनों झीलों की मनोरम सौन्दर्य भूमि, निलहें अंगेजों द्वारा किसानों पर किये गये अमानवीय अत्याचारों का मूकसाक्षी एवं 10 जून 1885 को सारण से पृथक होकर स्वअस्तित्व में आया चम्पारण को, महात्मा गाँधी की कर्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है। भारत के स्वाधीनता संग्राम में अपनी भूमिका के लिए महत्वपूर्ण है। विष्व षान्ति में चम्पारण और गाँधी की भूमिका चिरस्मरणीय है।

डॉ. नन्दकिशोर साह

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