श्रीकृष्ण हैं ही प्रेम के अवतार। उनका राधा और गोपियों का प्रेम अमर हो गया। वैसा ही उनका मीरा प्रेम के साथ हुआ। श्रीकृष्ण की प्रेम लीलाएं बहुचर्चित हैं। श्रीकृष्ण हैं ही लीलाधारी। उनकी लीलाओं में रस-रंग हैं, विविधताएं के इन्द्रधनुष हैं और समर्पण की अन्तर्कथाएं हैं। मीरा में वे ही अवतरित हुई हैं। श्रीकृष्ण सामाजिकों से जुड़ने, उनमें रमने और उनको अपना बनाने में देर नहीं लगाते। इसी का कारण है कि वह बहुचर्चित हैं।
सबमें रमण करते हैं। मीरा उनके ही मार्ग की अनुगामिनी है। श्रीकृष्ण की सामाजिकता में सम्मोहन है, अन्तःकरण की अनुभूतियों की विविधताएं और परस्परता की घनिष्ठता का आकर्षण हैं। वही सब मीरा में है।
अनेक जगह मीरा के बारे में गहरी खामोशी मिली। गुजरात में चोरवाड़, सोमनाथ, काठियावाड़ और द्वारिका में भी मीरा के बारे में कोई विशेष बात सामने नहीं आई। द्वारिका में मैंने द्वारकाधीश के दोनों मन्दिरों के दर्शन किए। वहाँ मीरा की अनुभूति मुझे मिली। एक रात मैं मन्दिर में ही रह गया। वह पूनम की रात थी। समुद्र बेहद मचल रहा था।
उसकी तरंगंे ज्वार-भाटे का निमन्त्रण दे रही थीं। फिर भी, मुझे अद्भुत सन्नाटा घेरा हुआ था। मैं चकित था और एक बार यह सोच कर डर गया था कि मीरा ने आत्महत्या तो नहीं की थी। मीरा आत्महत्या क्यों करती? पर मैं ऐसा जरूर सोच गया। आत्महत्या की सम्भावना की जा सकती थी। मीरा ने जिस समाज में जीया था, वह समाज नारी स्वतन्त्रता के प्रति और विशेष रूप से राजघराने की विधवा युवती के प्रति, कतई अनुकूल नहीं था। मीरा का वृन्दावन छोड़ कर द्वारिका आना अकारण नहीं था।
मीरा एकदम अकेली पड़ गई थी। कौन था उसका? वह किस-किस से लड़ती? उसे लड़ना आता नहीं था। वह तो प्रभु चरणों में अपने आपको समर्पित करके निश्चित हो गई थी। उसके प्रभु जैसे रखेंगे, वह रहेगी। फिर भी, व्यक्ति के संघर्ष झेलने की एक सीमा है। मैं मीरा के लिए आत्महत्या की सोच कर पाप नहीं कर रहा हूँ।
कारण, किसी व्यक्ति का आत्महत्या तक पहुँचने के लिए तत्कालीन समाज जिम्मेदार होता है। यद्यपि मैंने मीरा को समुद्र स्थित द्वारिकाधीश के मन्दिर में प्रविष्ट हो जाने दिया है तथापि उसके बाद क्या हुआ, वह अनुमान-अनुभव और कल्पना के लिए छोड़ दिया। इसके अतिरिक्त मेरे सामने कोई उपाय नहीं था और मैं किसी भी निर्णय लेने की स्थिति में स्वयं को नहीं पाता था। फिर, मेरे लिए मेरे पाठक भी तो कृतिकार हैं, उन्हें भला मैं सृजन के सुख से कैसे वंचित रह जाने देता। समर्पण का अपना सुख है, अपना आनन्द है। पारवती इसका सबसे बड़ा साक्ष्य है।