– सुनील बाजपेई –
विश्व का लगभग कोई भी देश ऐसा नहीं है,जहां बलि / कुर्बानी का अपना धार्मिक कारण ना हो। कुछ एक पंथ समुदाय या धर्म को छोड़ दें तो बलि और कुर्बानी की परंपरा पुरातन की पुष्टि करती है। इसी क्रम में मुस्लिम समुदाय में बकरीद में कुर्बानी की परंपरा है। इस समुदाय के लोगों का मानना है कि अगर यकीन है तो
बकरीद या ईद-उल-अज़हा कुर्बानी से दुआ अवश्य ही कबूल होती है।
कुल मिलाकर मुस्लिम समुदाय के प्रमुख त्योहारों में से एक है। ईद-उल-अजहा के पर्व को बलिदान का प्रतीक माना गया है। इसलिए इस दिन इस्लाम धर्म में कुर्बानी का खास महत्व होता है। इस्लामिक कैलेंडर का महीना जिलहिज्जा के चांद दिखने पर ईद-उल-अजहा (अदहा) यानी बकरी ईद की तारीख तय हो जाती है। यह त्योहार कुर्बानी और त्याग के प्रतीक रूप में हर साल मनाया जाता है। इस दिन ‘हलाल जानवर’ की कुर्बानी देने की प्रथा है। यह एक जरिया है जिससे बंदा अल्लाह की रजा हासिल करता है। बेशक अल्लाह को कुर्बानी का गोश्त नहीं पहुंचता है, बल्कि वह तो केवल कुर्बानी के पीछे बंदों की नीयत को देखता है। अल्लाह को पसंद है कि बंदा उसकी राह में अपना हलाल तरीके से कमाया हुआ धन खर्च करे।
कुर्बानी का सिलसिला ईद के दिन को मिलाकर तीन दिनों तक चलता है।
इस बारे में धार्मिक अवधारणा जिस आशय की जानकारी देती है उसके मुताबिक इब्राहीम अलैय सलाम एक पैगंबर गुजरे हैं, जिन्हें ख्वाब में अल्लाह का हुक्म हुआ कि वे अपने प्यारे बेटे इस्माईल (जो बाद में पैगंबर हुए) को अल्लाह की राह में कुर्बान कर दें। यह इब्राहीम अलैय सलाम के लिए एक इम्तिहान था, जिसमें एक तरफ थी अपने बेटे से मुहब्बत और एक तरफ था अल्लाह का हुक्म।
इब्राहीम अलैय सलाम ने सिर्फ और सिर्फ अल्लाह के हुक्म को पूरा किया और अल्लाह को राजी करने की नीयत से अपने लख्ते जिगर इस्माईल अलैय सलाम की कुर्बानी देने को तैयार हो गए। अल्लाह रहीमो करीम है और वह तो दिल के हाल जानता है। जैसे ही इब्राहीम अलैय सलाम छुरी लेकर अपने बेटे को कुर्बान करने लगे, वैसे ही फरिश्तों के सरदार जिब्रील अमीन ने बिजली की तेजी से इस्माईल अलैय सलाम को छुरी के नीचे से हटाकर उनकी जगह एक मेमने को रख दिया। इस तरह इब्राहीम अलैय सलाम के हाथों मेमने के जिब्हा होने के साथ पहली कुर्बानी हुई। इसके बाद जिब्रील अमीन ने इब्राहीम अलैय सलाम को खुशखबरी सुनाई कि अल्लाह ने आपकी कुर्बानी कुबूल कर ली है और अल्लाह आपकी कुर्बानी से राजी है।
बेशक अल्लाह दिलों के हाल जानता है और वह खूब समझता है कि बंदा जो कुर्बानी दे रहा है, उसके पीछे उसकी क्या नीयत है। जब बंदा अल्लाह का हुक्म मानकर महज अल्लाह की रजा के लिए कुर्बानी करेगा तो यकीनन वह अल्लाह की रजा हासिल करेगा, लेकिन अगर कुर्बानी करने में दिखावा या तकब्बुर आ गया तो उसका सवाब जाता रहेगा। कुर्बानी इज्जत के लिए नहीं की जाए, बल्कि इसे अल्लाह की इबादत समझकर किया जाए। अल्लाह हमें और आपको कहने से ज्यादा अमल की तौफीक दे।
अब अगर शरीयत की बात करें तो शरीयत के मुताबिक कुर्बानी हर उस औरत और मर्द के लिए वाजिब है, जिसके पास 13 हजार रुपए या उसके बराबर सोना और चांदी या तीनों (रुपया, सोना और चांदी) मिलाकर भी 13 हजार रुपए के बराबर है।
मुस्लिम धार्मिक परंपरा के मुताबिक
ईद-उल-अजहा पर कुर्बानी देना वाजिब है। वाजिब का मुकाम फर्ज से ठीक नीचे है। अगर साहिबे हैसियत होते हुए भी किसी शख्स ने कुर्बानी नहीं दी तो वह गुनाहगार होगा। जरूरी नहीं कि कुर्बानी किसी महँगे जानदार की की जाए। हर जगह जामतखानों में कुर्बानी के हिस्से होते हैं, आप उसमें भी हिस्सेदार बन सकते हैं। अगर किसी शख्स ने साहिबे हैसियत होते हुए कई सालों से कुर्बानी नहीं दी है तो वह साल के बीच में सदका करके इसे अदा कर सकता है। सदका एक बार में न करके थोड़ा-थोड़ा भी दिया जा सकता है। सदके के जरिये से ही मरहूमों की रूह को सवाब पहुंचाया जा सकता है।
कोई दूसरा भूख ना रहे इसीलिए शरीयत
कुर्बानी के गोश्त के तीन हिस्से करने की सलाह देती है। जिसमें एक हिस्सा गरीबों में तकसीम किया जाए, दूसरा हिस्सा अपने दोस्त अहबाब के लिए इस्तेमाल किया जाए और तीसरा हिस्सा अपने घर में इस्तेमाल किया जाए। तीन हिस्से करना जरूरी नहीं है, अगर खानदान बड़ा है तो उसमें दो हिस्से या ज्यादा भी इस्तेमाल किए जा सकते हैं। गरीबों में गोश्त तकसीम करना मुफीद है। इस सब के पीछे धार्मिक मंशा के अनुरूप कुर्बानी के बदले .दुआ कबूल होने का ही यकीन है – – – और इस यकीन पर ही यकीन अल्लाह के हुक्म और उसकी इबादत की सार्थकता पर भी यकीन दिलाता है।