गांव के बियाह
पहले गाँव में न टेंट हाऊस थे और न कैटरिंग, थी तो बस सामाजिकता
संजय त्रिपाठी
प्रबंध संपादक
नवयुग समाचार (दैनिक)
गांव में जब कोई शादी ब्याह होते तो घर घर से चारपाई आ जाती थी, हर घर से थरिया, लोटा, कलछुल, कराही इकट्ठा हो जाता था और गाँव की ही महिलाएं एकत्र हो कर खाना बना देती थीं। औरते ही मिलकर दुलहिन तैयार कर देती थीं और हर रसम का गीत गारी वगैरह भी खुद ही गा लिया करती थी।
तब DJ अनिल, DJ सुनील जैसी चीज नहीं होती थी और न ही कोई आरकेस्ट्रा वाले फूहड़ गाने। गांव के सभी चौधरी टाइप के लोग पूरे दिन काम करने के लिए इकट्ठे रहते थे। हंसी ठिठोली चलती रहती और समारोह का कामकाज भी। शादी ब्याह मे गांव के लोग बारातियों के खाने से पहले खाना नहीं खाते थे क्योंकि यह घरातियों की इज्ज़त का सवाल होता था। गांव की महिलाएं गीत गाती जाती और अपना काम करती रहती थीं। सच कहूं तो उस समय गांव मे सामाजिकता के साथ समरसता होती थी।
खाना परसने के लिए गाँव के लड़कों के गैंग समय पर इज्जत सम्हाल लेते थे। कोई बड़े घर की शादी होती तो टेप बजा देते जिसमे एक कॉमन गाना बजता था। मैं सेहरा बांध के आऊंगा मेरा वादा है और दूल्हे राजा भी उस दिन खुद को किसी युवराज से कम न समझते थे। दूल्हे के आसपास नाऊ हमेशा रहता था, समय समय पर बाल झारते रहता था और समय समय पर काजर-पाउडर भी पोत देता था ताकि दुलहा सुंदर लगे। फिर द्वारचार होता फिर शुरू होती पण्डित जी की पंडिताई और लोगों की गप्पे तो रातभर चलती। फिर कोहबर होता, ये वो रसम है जिसमे दुलहा दुलहिन को अकेले में दो मिनट बतियाने के लिए दिया जाता था लेकिन इत्ते कम समय में कोई क्या खाक बात कर पाता।
सबेरे कलेवा में जमके गारी गाई जाती और यही वो रसम है जिसमे दूल्हे राजा जेम्स ब्रांड बन जाते कि ना, हम नही खाएंगे कलेवा। फिर उनको मनाने कन्यापक्ष के सब जगलर टाइप के लोग आते।
अक्सर दुलहा की सेटिंग अपने चाचा या दादा से पहले ही सेट रहती थी और उसी अनुसार आधा घंटा या पौन घंटा रिसियाने का क्रम चलता और उसी से दूल्हे के छोटे भाई सहबाला की भी भौकाल टाइट रहती, लगे हाथ वो भी कुछ न कुछ और लहा लेता…फिर एक जय घोष के साथ रसगुल्ले का कण दूल्हे के होठों तक पहुंच जाता और एक विजयी मुस्कान के साथ वर और वधू पक्ष इसका आनंद लेते।
उसके बाद दूल्हे का साक्षात्कार वधू पक्ष की महिलाओं से करवाया जाता और उस दौरान उसे विभिन्न उपहार प्राप्त होते जो नगद और श्रृंगार की वस्तुओं के रूप में होते। इस प्रकिया में कुछ अनुभवी महिलाओं द्वारा काजल और पाउडर लगे दूल्हे का कौशल परिक्षण भी किया जाता और उसकी समीक्षा परिचर्चा विवाह बाद आहूत होती थी और लड़कियां दूल्हा के जूता चुराती और 21 से 51 रुपए में मान जाती। इसे दूल्हा दिखाई कहा जाता था।
फिर गिने चुने बुजुर्गों द्वारा माड़ौ (विवाह के कर्मकांड हेतु निर्मित अस्थायी छप्पर) हिलाने की प्रक्रिया होती वहां हम लोगों के बचपने का सबसे महत्वपूर्ण आनंद उसमें लगे लकड़ी के शुग्गों ( तोता) को उखाड़ कर प्राप्त होता था और विदाई के समय नगद नारायण कड़ी कड़ी 10/20 रूपये की नोट जो कहीं 50 रूपये तक होती थी।
वो स्वर्गिक अनुभूति होता था कि कह नहीं सकते हालांकि विवाह में प्राप्त नगद नारायण माता जी द्वारा 2/5 रूपये से बदल दिया जाता था। आज की पीढ़ी उस वास्तविक आनंद से वंचित हो चुकी है जो आनंद विवाह का हम लोगों ने प्राप्त किया है। लोग बदलते जा रहे हैं, परंपरा भी बदलते चली जा रही है, आगे चलकर यह सब देखन को मिलेगा की नही अब इसे विधाता ही जाने लेकिन जो मजा उस समय मे था, वह अब धीरे धीरे विलुप्त हो रहा है।