(शाहनवाज़ हसन)
डिजिटल मीडिया के लिए कोड ऑफ कंडक्ट का अनुपालन अनिवार्य है। आज हर 10 में से एक व्यक्ति जिसके पास Smart mobile है वह पत्रकार है। डिजिटल मीडिया से जुड़े अधिकांश लोगों को पत्रकारिता की समझ नहीं है, बस एक *शोर* है, एक *हंगामा* है, बस एक भीड़ है जिसका एक मात्र लक्ष्य *Views & Like* को बढ़ाकर पैसे कमाना है।

वहीं कुछ साथी ऐसे भी हैं जो मीडिया के इथिक्स से समझौता नहीं करते, पर उनकी संख्या आप उंगली पर गिन सकते हो, वे बहुत ही कम हैं। वे खबरों को तड़कदार बनाने का हुनर भी नहीं जानते, इसलिए वे सोशल मीडिया से मोटी कमाई भी नहीं कर पाते।
इन सब बातों के बावजूद मैं यही कहूंगा कि पत्रकार हमेशा *सत्ता* के लिए आंखों की किरकिरी होते हैं और वे निशाने पर होते हैं।
जब एक पत्रकार के विरुद्ध षड्यंत्र रचने वाला मुख्यमंत्री का सलाहकार हो सकता है, तो इस बात को भलीभांति समझा जा सकता है कि आज निष्पक्ष पत्रकारिता में कितना जोखिम है।आप ने उस पीड़ा को भी झेला होगा जब आप के विरुद्ध कोई और नहीं हमारी पत्रकार बिरादरी के ही कुछ उद्दंड, धूर्त एवं नशेड़ी लोग आप के विरुद्ध रचे षड्यंत के न केवल भागीदार रहे होंगे बल्कि जश्न भी मना रहे होंगे। आप ने लड़ाई लड़ी और अंततः आप को सफलता मिली। पर ऐसा कितने लोगों के साथ हो पाता है…?
मैं ने एक नहीं अनेकों अवसर पर देखा है समाचार संकलन को लेकर पत्रकारों पर झूठे मुकदमे दर्ज किए गए, उन्हें जेल भेजा गया, हत्याएं भी हुई। उनमें सभी आप की और मेरी तरह सक्षम अथवा किस्मत वाले नहीं होते हैं जिन्हें जेल नहीं जाना पड़ा।आप के विरुद्ध षड्यंत रचने वाले मुख्यमंत्री के सलाहकार थे, मेरे विरुद्ध षड्यंत्र रचने वाले कांग्रेस के एक राष्ट्रीय प्रवक्ता, एक मंत्री और एक आईजी स्तर के अधिकारी थे।
मैं ने भी अकेले उन सभी को औकात बताई थी। तब न ही कोई संगठन मेरे साथ खड़ा हुआ था और न ही कोई पत्रकार। मैं ने तब ही यह प्रण लिया था जो मेरे साथ हुआ है वह किसी अन्य के साथ मैं नहीं होने दूंगा, उसके बाद ही मैं ने संगठन की स्थापना लगभग १५ वर्ष पूर्व की थी।
मेरे विरुद्ध सभी अखबारों ने उस षड्यंत्र को लेकर प्रमुखता से फ्रंट पेज पर खबर प्रकाशित किया था, मानो उन्होंने यह पहले से तय कर रखा हो कि मैं कसूरवार हूं। उनमें सबसे बड़ी भूमिका क्राइम रिपोर्टर की होती है, अधिकांश बड़े अखबारों के क्राइम रिपोर्टर स्वयं क्रिमिनल बैक ग्राउंड से आते हैं अथवा उनकी काबिलियत को इसी से समझा जा सकता है कि मेरे अखबार के लिए सेवा देने वाले दो कैमरामैन जिन्हें ठीक से लिखना तक नहीं आता था आज दो बड़े अखबार के क्राइम रिपोर्टर हैं।
मेरे मामले में केवल एक मात्र अखबार *प्रभात खबर* ने तब मेरा पक्ष रखा था। तब पीड़ा मुझे इस बात को लेकर नहीं थी कि दो भ्रष्ट आईपीएस अधिकारी एवं कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता के कारनामों का खुलासा कर रहा था, बल्कि उनके विरुद्ध मैं सफल स्टिंग ऑपरेशन कर चुका था। तब पत्रकारिता के नाम पर गंद मचाने वाले शराबियों की एक टोली ने, जिनकी औकात बस यही है कि वे चौक चौराहों पर अड्डाबाज़ी कर रोजाना शराब के लिए बकरे की तलाश में रहते हैं वे मुझ निर्दोष रहते हुए भी लगातार डिजिटल मीडिया के माध्यम से बदनाम करने की मुहिम छेड़ दी थी, वह शराबी गैंग आज भी मेरा विरोधी है, जिसकी मैं कभी परवाह नहीं करता, क्योंकि वे सभी गटर में रहने वाले लोग हैं, जिनका समुद्र से कभी कोई वास्ता नहीं रहता। मै ने पलट कर कभी उस गटर को कोई जवाब केवल इसलिए नहीं दिया, क्योंकि मुझे उनकी औकात (५००- १००० ₹ की शराब)का पता था।
अधिकांश पत्रकार अब पक्षकार बन गए हैं, वे चाकरी कर रहे हैं। अखबार/चैनल के मालिक अंबानी, अडानी एवं बिड़ला हैं…. जो साहूकार धन्ना सेठ हैं। उनके यहां नौकरी करने वाले पत्रकार कैसे पत्रकारिता कर सकते हैं….?
अडानी की लूट का खुलासा आज कौन बड़ा अखबार/चैनल कर रहा है…? मध्यम/छोटे मीडिया हाउस के कारण ही पत्रकारिता आज बची हुई है। डिजिटल मीडिया एक ऐसा प्लेटफार्म है जिसके माध्यम से हम निष्पक्ष पत्रकारिता कर सकते हैं, पर यह जोखिम उठाना इतना आसान नहीं है, तहसील और जिला स्तर पर कमियों को उजागर करेंगे तो उपायुक्त/जिलाधिकारी और एसपी आप के दुश्मन बन जाएंगे, विशेष कर बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ पश्चिम बंगाल एवं मध्य प्रदेश में रेत/बालू/कोयला माफिया का संपर्क सीधे राज्य के मुखिया से होता है, पूरा एक सेडीकेट चल रहा है, जिसमें हमारे पत्रकार साथी भी शामिल हैं। वे कोयला माफिया के पैसों से अखबार/चैनल चला रहे हैं। ऐसी परस्थिति में पत्रकार कैसे सुरक्षित रहेंगे…..?
जो समझौता नहीं करते उन पर मुकदमे दर्ज किए जा रहे हैं, हत्याएं हो रही हैं, हाल ही में छत्तीसगढ़ के पत्रकार मनोज की हत्या एक उदाहरण है। पत्रकारों के वाहन में नशीली पदार्थ रख कर तीन पत्रकारों को जेल भेजा गया, हम सभी ने उसका भरपूर विरोध किया और उन्हें न्याय मिला… पर वे जेल भेजे गए, उनकी पीड़ा तब और बढ़ जाती जब हम पत्रकार के रूप में उनके साथ खड़े न होकर उसे ही कठघरे मे खड़ा कर देते।
पुलिस, खुफिया विभाग की रिपोर्ट को हम सत्य मानकर अपने किसी पत्रकार साथी को न्यायालय के निर्णय से पहले ही दोषी मान लेते हैं, यह सरासर अन्याय और पत्रकारिता के मूल सिद्धांत के विरुद्ध है। हम न ही सत्ता समर्थक बनें और न ही सत्ता विरोधी, यदि हम स्वयं को पत्रकार कहते हैं, वरना ऐसा करने वाले पक्षकार हैं।
